चोटी की पकड़–91

"हमको रानीजी की हैसियत से कहना पड़ता है। तुम यह समझ चुकी कि पीछा नहीं छूटता। तुमको ऐसा करना चाहिए कि पीछा छुड़ाकर मर्द भागे।"


"अच्छा नहीं जान पड़ता। परमात्मा के घर जाना है। जी को बेपरदगी पसंद नहीं। लाज बड़ी चीज है। दूसरा जबर्दस्ती खोलता है तो बचाव की जगह रहती है।"

"तुमने दिल दे दिया। यह दिल मर्द को न दो। लेने लगोगी तो मालूम होगा कि वह तुम्हारा नहीं।

 या तो वह तुम पर है या तुम उस पर। आज तक मर्द को ही तुमने अपने ऊपर पाया होगा। अब उल्टा नजर आएगा। बचत की और जगह मिलेगी। मर्द झुका रहेगा।"

बुआ को बल मिला। पूछा, "क्या मर्द के पीछे लगना होगा?"

"हाँ, और वह इतना बड़ा मर्द है कि यहाँ उससे बड़ा मर्द नहीं।"

"वह कौन है?"

"वह राजा है। वही यह अपमान कराता है। आज तुमको रानी का सम्मान दिया जाएगा। साथ सिपाही रहेंगे। यह न समझना कि तुम रानी नहीं, बुआ हो।

 कभी यह न जाहिर करना कि किसी मतलब से तुम गई हो। तुम्हारे साथ सब पुलिस के सिपाही रहेंगे।

 खूब याद रहे, कहना, मैं रानी। तुमको कोई पहचान न पाएगा। मैं साथ रहूँगी, लेकिन दूर। जो सिपाही बहुत पास रहेगा, उसको अपना जिगरी मत समझना।"

"हमको डर लगता है।"

"हम कई आदमी साथ रहेंगे। डर की कोई बात नहीं। कहो, क्या कहोगी।"

"मैं रानी।"

"हाँ।"

संध्या की छाया पड़ने लगी। मुन्ना ने बरामदे की तरफ देखा, कोई नहीं देख पड़ा। बुआ को साथ लेकर लौटी।

 हवा और सुहानी हो गई। बुआ को पहले शंका थी, मगर हृदय के कपाट जैसे खुल गए; जान पड़ा, संसार में धर्म का रहस्य कुछ नहीं-सब ढोंग है।

बुआ को टहलने के लिए छत पर छोड़कर मुन्ना सिपाही के पास गई और उस तरफ जाने के लिए कहा।

   0
0 Comments